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एक घटिया आदमी को जीतते देख कर ग़ुस्सा आता है

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‘ख़ुद को नुकसान पहुंचाने वाले दृश्य कुछ समय के बाद उबाऊ लगने लगते हैं। लगभग तीन घंटे की इस कहानी में, कबीर सिंह  के लड़ाकू स्वभाव को झेलना मुश्किल हो जाता है,’ सुकन्या वर्मा ने कहा।

Shahid Kapoor and Kiara Advani in Kabir Singh

क्या फिल्म पसंद आने के लिये किरदार पसंद आना ज़रूरी है?

बात नैतिकता की नहीं है। मुझे घिनौने पागल आदमियों और उल्टी खोपड़ी के सनकी लोगों को कहानी के मुख्य किरदार के रूप में देखने से कोई आपत्ति नहीं है। मैं ख़राब इंसान की तरफ़ से ज़रूर बोलूंगी अगर कहानी दमदार और दिलचस्प हो। लेकिन विषैली मर्दानगी को देखना मुझसे सहा नहीं जाता। तो उसके रोमांस को महसूस करना तो दूर की बात है।

कहानी में हर जगह ख़राब व्यवहार को ग़ुस्से और शराब की लत का नाम दे देना इसे और भी  घटिया और हास्यास्पद बना देता है।

कबीर सिंह  देखते समय मेरे दिमाग में खलबली मची हुई थी। निश्चित रूप से इसे बहुत ही अच्छे पैकेज में परोसा गया है। एक ऐसी कहानी के रूप में, जो आपकी सोच को लगातार चुनौती देती है कि क्या आप इसके सामने घुटने टेक सकते हैं या इसे स्वीकार कर सकते हैं। और यह फिल्म आपकी सोच को इसकी ओरिजिनल अर्जुन रेड्डी  से भी ज़्यादा झकझोरती है, जिसे मैंने कुछ ही समय पहले देखा था।

नॉर्थ इंडियन तड़कों और एडिटेड दृश्यों को हटा दिया जाये, तो कबीर सिंह  हू-ब-हू तेलुगू सुपरहिट की नकल है, जिसका अक्खड़पना फिल्म के मुख्य किरदार विजय देवराकोंडा के प्रभावशाली और आकर्षक व्यक्तित्व में थोड़ा छुप गया था।

हालांकि अर्जुन रेड्डी  देख कर भी मुझे तकलीफ़ हुई थी, लेकिन देवराकोंडा की वजह से मैं अपनी निग़ाहें स्क्रीन से हटा नहीं पाई। उन्होंने कहानी जैसी उन्हें लिख कर दी गयी है, बिल्कुल वैसी ही अदा की है।

संदीप रेड्डी वंगा द्वारा डायरेक्ट की गयी इस मूवी के बारे में मैंने लिखा नहीं था, लेकिन इस फिल्म से शुरू हुई अभिनेता और किरदार के बीच की विषमता से मैं प्रभावित ज़रूर हुई थी। ऐसा हो ही नहीं सकता कि ओरिजिनल देखने के बाद आप कबीर सिंह  देखने जायें और देवेराकोंडा के प्रभाव को महसूस न करें।

सनकी किरदारों में शाहिद कपूर की कुशलता (कमीने, हैदर, उड़ता पंजाब) कबीर सिंह  के लिये बिल्कुल सही है। लेकिन उनके ग़ुस्सैल किरदार की हरकतों के पीछे की सनक और जुनून को गले से उतारना मुश्किल है।

यह किरदार उतना घिनौना नहीं है, जितना चिड़चिड़ा है। कहा जा सकता है कि इस किरदार में देवराकोंडा सोडा हैं, तो शाहिद पानी हैं।

और यह कमी तब और चुभती है, जब आप एक सनकी मुख्य किरदार निभा रहे हों। कबीर सिंह के किरदार को पसंद करना बेहद मुश्किल है। बीच की उंगली के इशारों को ब्लर किया गया है और गालियों की जगह बीप की आवाज़ भरी गयी है। वो कह सकता है कि वो बिना कारण ऐसा नहीं बना, लेकिन मेडिकल स्टूडेंट के रूप में उसके फ़्लैशबैक में साफ़ दिखता है कि वो एक गुंडा  रह चुका है, जिसे अक्सर अपनी बातें वापस लेनी पड़ती हैं।

वो कहता है कि माफ़ी मांगने की जगह वो कॉलेज छोड़ देगा, लेकिन फिर माफी मांग लेता है।

वो कहता है कि वो अपनी गर्लफ्रेंड को लड़कों के हॉस्टेल में रखने की बात से पीछे नहीं हटेगा, लेकिन फिर जल्द ही हॉस्टेल छोड़ देता है।

शानदार रॉक म्यूज़िक, ख़ुशनुमा बैलड और सहानुभूति पैदा करने वाला बैकग्राउंड म्यूज़िक कबीर के घटियापन को छुपा नहीं पाता। अपनी उफ़ान मारती मर्दानग़ी के जोश में कभी वो लड़की को छुरी दिखा कर कपड़े उतारने के लिये कहता दिखाई देता है, तो कभी बर्तन तोड़ने के लिये कामवाली की पिटाई करने के लिये उसके पीछे दौड़ता है, एक ‘हेल्दी’ लड़की को ज़बर्दस्ती उसकी प्रेमिका की बेस्ट फ्रेंड और रूमी बनाता है, अपने सपने पूरे करने के लिये ज़बर्दस्ती लड़की को उसके साथ प्यार के लिये मजबूर करता है, और फिल्म के सबसे चौंकाने वाले दृश्य में उसे एक थप्पड़ जड़ देता है।

उसे अपनी जायदाद समझने और बाद में उसे रूख़ेपन के साथ हटा देने वाले कबीर ने मूवी में हर जगह अपनी पुरुष प्रधान सोच का परिचय दिया है, फिर चाहे बात हो उसे चुन्नी ठीक करने के लिये कहने की, या अपनी कुतिया को अपनी प्रेमिका का नाम देने की।

कियारा आडवाणी का नाम प्रीति है। लेकिन उसे पुट्टी कहें तो ज़्यादा बेहतर है। वह बिल्कुल कबीर के लिये ही बनी है। प्रीति एक कमज़ोर, कठपुतली है, जो कबीर की ‘बंदी’ के रूप में अपनी ग़ुलामी को स्वीकार कर चुकी है।

उसमें कोई दम नहीं है। उसमें दमदार बनने की कोई इच्छा भी नहीं है। उससे ज़्यादा हिम्मत तो एक रोबॉट के भीतर होगी।

उसकी कायरता या मूर्खता इतनी ज़्यादा है कि वो हीरो से पूछती भी है, ‘तुम्हें मुझमें क्या पसंद है?’ शायद रुढ़िवादी माहौल में पली-बढ़ी होने और समाज में ज़्यादा घुली-मिली न होने के कारण उसे कबीर की ज़ोर-ज़बर्दस्ती आकर्षक लगती है और धक्के खाना ही उसके जीने का तरीका है।

उसकी तारीफ़ में कहा जा सकता है कि आडवाणी ने शर्मीली होने और रोने का काम अच्छा किया है। यह एक नीच आदमी और एक गाय के बीच का रोमांस है, भले ही दोनों एक-दूसरे के साथ पीली सरसों के खेतों में मुस्कुराते और गाने गाते कितने भी अच्छे क्यों न लगें, उनका रोमांस एक घटिया आदमी और गाय के बीच का प्यार ही लगेगा।

दूसरी ओर, कपूर और आडवाणी के बीच की केमिस्ट्री रंग नहीं लाती। सिर्फ चुंबन के दृश्य ज़रूर दिखाई देते हैं, लेकिन उनका प्यार उभर कर नहीं आता।

और जब दोनों अलग हो जाते हैं, तब शुरू होता है शिकायतों, झगड़ों, पीने, ड्रग्स, सिगरेट, सेक्स की भूख को शांत करने के लिये पैंट में बर्फ भरने का सिलसिला और फिर वंगा कबीर को एक लंपट बनाने के काम में लग जाते हैं।

नर्सें उसके हट्टे-कट्टे शरीर पर जान छिड़कती हैं, और मरीज़, यहाँ तक कि एक ऐक्ट्रेस भी उसे वन-नाइट-स्टैंड्स के लिये चुन लेती हैं। ऐसे माहौल में, मेडिकल लापरवाही भला कैसे नहीं होगी?

शराबी बनने से पहले भी बेमतलब घमंड और बेकार के ग़ुस्से में चूर इस आदमी की हरकतों का कोई मतलब नहीं बनता। उसके हर समय ग़ुस्से में रहने का कोई कारण नहीं है। उसका परिवार उसपर जान छिड़कता है। वो एक ए-वन स्टूडेंट है।

रॉकस्टार और रांझणा  जैसी फिल्मों में ग़ुस्से का कारण टूटे सपने और पिता से नाराज़ग़ी है। गली बॉय  में, आलिया भट्ट का अस्थिर ग़ुस्सा एक पिछड़े परिवार में उसकी दबी हुई भावनाओं के कारण बाहर आता है।

श्रेक  का ऑगर भी एक तरह से अपना बचाव करता है, यह उसका स्वभाव नहीं है। कबीर सिंह न तो अपने ग़ुस्से को सही बता सकता है और न ही अपने अक्खड़ स्वभाव से हमारा दिल जीत सकता है।

लेकिन कबीर सिंह की दादी (कामिनी कौशल ख़ूबसूरती और समझदारी का एक संगम हैं) और डायरेक्टर वंगा फिर भी उससे निराश नहीं होते।

उसके ढीठ ज्ञान, मार-पीट और बेहरम हरकतों को उसके करीबी लोग न सिर्फ माफ़ करते हैं, बल्कि उसे ईनाम भी देते हैं। कभी उसका भाई (अर्जुन बाजवा) विदेश से उसके लिये हाइ-एंड बाइक मंगा देता है, तो कभी उसका दोस्त (सीन चुराने वाले सोहम मजूमदार) उसके टूटे दिल के घाव भरने के लिये अपनी बहन का हाथ उसे देने के लिये तैयार हो जाता है, कभी उसके पिता (नालायक बेटे के सीधे-सादे पिता, सुरेश ओबेरॉय) वही करते हैं जो हर बिगड़े हुए बेटे का बाप करता है। ‘तुम्हें वेकेशन पर जाना चाहिये। तुम्हें इसकी ज़रूरत है। तुम्हें इसका हक़ है।’

कबीर और प्रीति के बीच आई दूरी भी मूर्खतापूर्ण लगती है। जाति (प्रीति सिख है) के कारण उन्हें एक न होने देने वाले उसके पिता की आपत्ति को कुछ ज़्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया गया है। प्रीति के पिता भी कबीर की तरह ही ज़हरीले लगते हैं, और इससे मर्दों में प्रीति की पसंद साफ़ झलक जाती है — प्रीति बस सनकी मर्दों की एक कठपुतली है।

ख़ुद को नुकसान पहुंचाने वाले दृश्य कुछ समय के बाद उबाऊ लगने लगते हैं। लगभग तीन घंटे की इस कहानी में, कबीर सिंह  के लड़ाकू स्वभाव को झेलना मुश्किल हो जाता है।

औरतों से खिलौने जैसा व्यवहार करना, उसकी भावनाओं को पैरों तले कुचलना और फिर एक घायल शहीद और दुनिया द्वारा गलत समझे गये एक बुद्धिजीवी की तरह पेश आना, कबीर सिंह  हर मूर्ख मर्द की हर ग़लत सोच को पर्दे पर लेकर आया है।

नियमों से बंधा न रहना अच्छी बात है, लेकिन हर ग़लत काम करने के बाद एक घटिया आदमी को जीतते हुए देख कर ग़ुस्सा आ जाता है।  

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